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May 18, 2021

कंजूस

*☺☺ हंस लें थोड़ा सा ☺☺*

एक दिन एक बहुत बड़े कजूंस  के घर में कोई मेहमान आया!

कजूंस ने अपने बेटे से कहा
"आधा किलो बेहतरीन मिठाई ले आओ।" 

बेटा बाहर गया और कई घंटों बाद वापस आया....

😊😊

कंजूस ने पूछा "मिठाई कहाँ है ?"

बेटे ने कहना शुरू किया- "पिताजी, मैं मिठाई की दुकान पर गया और हलवाई से बोला कि सबसे अच्छी मिठाई दे दो, हलवाई ने कहा कि ऐसी मिठाई दूंगा बिल्कुल मक्खन जैसी...
मैंने सोचा कि क्यों न मक्खन ही ले लूं ! मैं मक्खन लेने दुकान पर गया और बोला कि सबसे बढ़िया मक्खन दो ! दुकान वाला बोला कि ऐसा मक्खन दूंगा बिल्कुल शहद जैसा...तो मैने सोचा क्यों न शहद ही ले लूं। मै फिर गया शहद वाले के पास और उससे कहा कि सबसे मस्त वाला शहद चाहिए, वो बोला ऐसा शहद दूंगा बिल्कुल पानी जैसा साफ !

तो पिताजी, इसलिए मैंने सोचा कि पानी तो अपने घर पर ही है, और मैं चला आया खाली हाथ !"🤷‍♂️

कंजूस बहुत खुश हुआ और अपने बेटे को शाबासी दी, लेकिन तभी उसके मन में कुछ शंका उत्पन्न हुई....

"लेकिन बेटे तू इतनी देर घूम कर आया, तेरी चप्पल तो घिसी होंगी ?"

"पिताजी, ये तो उस मेहमान की चप्पल हैं, जो घर पर आया हुआ है।"

*पिता की आंखों मे खुशी के आंसू आ गए !😂*

🤣🤣🤣😝😝😝😁😄😀🤣😆😆😃😃😆😆😅😅😅😅

March 07, 2021

Joke


WHERE'S THE BODY? Veronica was practicing the piano when suddenly there was a loud pounding on the front door. She opened it and found a breathless cop.

"What's the matter?!" she asked.

"Where's the body?!" demanded the officer.

"What are you talking about?"

"We just got a tip that some guy named Mozart was being butchered to pieces in this house."

"एक बैंकर की कलम से"

पूरे दिनभर शाखा का कार्य निबटा कर शाम को 45 किलोमीटर दूर अपने वाहन से मीटिंग के लिए निकले!
मीटिंग शुरू हुई और खत्म होने का नाम ही नही ले रही थी,खाना भी आ चुका था और ठंडा पड़ना शुरू हो चुका था,वो मन्चूरियन की खुशबू बड़ा लालायित कर रही थी लेकिन साथ ही वापस 45 किलोमीटर दूर कार चलाकर ले जाने का खौफ भी अपना असर दिखा रहा था!
अंततः जब शरीर से प्राण छूटने को ही थे तभी मीटिंग का समापन हुआ और हमने उस ठंडे पड़ चुके भोजन को पूरी इज़्ज़त देते हुए ग्रहण किया और निकल पड़े उस सुनसान पड़ चुके अंधेरे रास्ते में जिस पर 80 से 100 की स्पीड में कार बस ऐसे चला रहे थे मानो हमने हमारा टर्म प्लान आज ही के दिन के लिए करवाया था!
कार जब चल रही थी तो हमने हमारी आंखों को ऐसे मुश्किल से फाड़ रखा था की बस कुछ समय और खुली रहो फिर तुम्हे वो स्लीपवेल का गद्दा नसीब होने वाला है और बस उस स्लीपवेल के गद्दे की आस में हमारी आंखों ने हमारा साथ दिया और साथ तो उस नीलगाय ने भी दिया जो बेचारी हमारी कार की गति से थोड़ा ज्यादा तेज़ निकल गयी अन्यथा हम या वो या हमारी कार किसी को तो अहसास हो ही जाता की "speed  thrills but kills".
रास्ते में चलते चलते ही तारीख बदल गयी और समय हो गया था 12:30 और हम घर भी पहुँच चुके थे,बस फिर खुद को एक ज़िंदा लाश की तरह बिस्तर पर गिराया लेकिन वो आंखे जिन्होंने रास्ते भर साथ दिया वो शिकायत करने लगी की "मालिक नींद कहाँ है"?
और हमारे पास कोई जवाब ना था बस पड़े रहे और सुबह कब हो गई पता ही नही चला!
अब बारी आई की बच्चे को स्कूल के लिए तैयार करना है और उसे स्कूल छोड़कर आना है लेकिन हमारा शरीर जवाब दे चुका था की अभी इसे और आराम की जरूरत है और इसी के चलते आज बच्चा शिक्षा से दूर रहेगा!
बच्चे को तो स्कूल ना भेजकर 2 घण्टे का और आराम ले लिया लेकिन हमे तो ऑफिस जाना ही है और समय से जाना है क्यो की आप रात को देरी से आये आप थके हुए है या कुछ भी हो लेकिन ग्राहक क्यो आपकी बात को समझेगा उसे तो 10:30 पर आपकी उपस्थिति चाहिए ही चाहिए और बस मन को समझाया और बची हुई हिम्मत जुटा कर फिर निकल पड़े अपनी अनवरत सेवाएँ देने के लिए!

"हम इंसान बन चुके है अब मशीन नही रहे क्यो की मशीन तो ज्यादा चले तो थककर रुक जाएगी लेकिन इंसान को रुकने का अधिकार नही है"

"एक बैंकर की कलम से"

लंकाधीश रावण कि मांग


(अद्भुत प्रसंग, भावविभोर करने वाला प्रसंग जरुर पढ़े)

बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी *महर्षि कम्बन की #इरामावतारम्'# मे यह कथा है।

रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..। उसे भविष्य का पता था..। वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव है..।

जब श्री राम ने खर-दूषण का सहज ही बध कर दिया तब तुलसी कृत मानस में भी रावण के मन भाव लिखे हैं--

         खर दूसन मो   सम   बलवंता ।
         तिनहि को मरहि बिनु भगवंता।।

रावण के पास जामवंत जी को #आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..।
जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा। स्वयं रावण को उन्हें राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है।

रावण ने सविनय कहा–   "आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।"

जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आसन ग्रहण किया। रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है।
" मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ।"

प्रणाम प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया

  "क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है ?"

"बिल्कुल ठीक। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है. I"

जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे?

रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा –" आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।"

जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए।

अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है।

" .यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना। ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। "

स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य।
 यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया।
. स्वस्थ कण्ठ से "सौभाग्यवती भव" कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया।

सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे ।

" आदेश मिलने पर आना" कहकर सीता को उन्होंने  विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे ।

जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

" दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! "

दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया ।
 
सुग्रीव ही नहीं विभीषण की भी उन्होंने उपेक्षा कर दी। जैसे वे वहाँ हों ही नहीं।

 भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा

" यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें।"

 श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं।

" अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं। यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था। इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है। इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ?"

" कोई उपाय आचार्य ?"

                           
" आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं। स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं।"

श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया। श्री रामादेश के परिपालन में. विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे।
           
 " अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान ..."

आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया।
गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा - लिंग विग्रह ?

यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं। अभी तक लौटे नहीं हैं। आते ही होंगे।

आचार्य ने आदेश दे दिया - " विलम्ब नहीं किया जा सकता। उत्तम मुहूर्त उपस्थित है। इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले।"

                     
 जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया ।

     यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया। श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया।

 आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया।.

अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की..

     श्रीराम ने पूछा - "आपकी दक्षिणा ?"

पुनः एक बार सभी को चौंकाया। ... आचार्य के शब्दों ने।

" घबराओ नहीं यजमान। स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है ..."

" लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है।"

"आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे ....." आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी।
         

"ऐसा ही होगा आचार्य।" यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी--
         
            "रघुकुल रीति सदा चली आई ।
            प्राण जाई पर वचन न जाई ।"
                       
यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए। सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
                 

रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है ?

(रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी )

🙏🏼जय श्री राम  🙏🏼
इस प्रसंग को पढ़ने का सादर  आभार.!

PEARLS OF WISDOM ...............For.............. S E N I O R C I T I Z E N S



When you get old...
▪Never teach anyone anything, unless requested... even if you are right.
▪Do not try to help unless asked for... but be ready & available for it.
▪️Do not give unsolicited opinion in academic, professional or financial matters... detach yourself.
▪️Do not expect everyone to follow your advise or opinion ... or even respect your experience.
▪Don't worry about future of your children beyond a limit... let them perform or perish.
▪Don't try to protect your loved ones from all the misfortunes of the World... Just pray for them.
▪Don't complain about your health, your neighbours, your retirement, your woes all the time... no one is interested.
▪Don't expect gratitude from children... specially when they think too wise of themselves.
▪ Don't exhaust your emotions on people who do not respect you... move away.
▪ If you are not wanted or loved, find it elsewhere... enough deserving people beyond your family.
▪Do not brood over lost opportunities and failed relationships... look forward to those who value & love you.
▪Don't waste your last money on useless anti-aging treatments... age gracefully.
▪Rather than leaving all your hard earned money for ungrateful people, better spend it on a cause, trip, hobby or leisure... It's always worth it.
▪Take care of your spouse, even if he/she becomes a wrinkled, helpless and moody old person... don't forget he/she was once young, good looking and cheerful.
▪Understand new technologies, follow the News,  study something new, develop small skills... do not fall behind in time.
▪Don't blame yourself for whatever happened to your life or to your children's lives... you did everything you could.
▪Preserve your dignity & integrity in any situation till the end... even if it requires to detach from undeserving people in your life.
▪Try to keep physically fit,  mentally agile and socially alive... Do your best & leave the rest to The Almighty.

All the Best👍

February 28, 2021

Saraswati Bandana in Veda

*म॒हो अर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑। धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥*
ऋग्वेद :१/३/१२

जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महः) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जाननेवाली है, वही मनुष्यों की (विश्वाः) सब बुद्धियों को विशेष प्रकाशित करती है।

आज सृष्टि के आरम्भ दिवस *बसंत पंचमी* पर हम सभी की वाणी एवं बुद्धि में *देवी सरस्वती* विराजित हों, ऐसी शुभकामनाएँ।

💐🍁🦚🌹🌻🙏🏻

December 10, 2020

गीताप्रेस गोरखपुर का इतिहास क्या है?

जिसने घर-घर तक गीता पहुँचाया, धर्म की सेवा 'घाटे का सौदा'नहीं है ये सीख दी।

गीता प्रेस के संस्थापक श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार को नमन।

बंगाली बड़ी तेज़ी से हिन्दू से ईसाई बनते जा रहे थे। कारण था - कलकत्ता मे मदर टेरेसा की ईसाई मिशनरी। यहाँ बाइबिल के अलावा ईसाईयों की अन्य किताबें (जिनमें हिन्दू धार्मिक परम्पराओं के अनादर से लेकर झूठ तक भरा होता था,) सहज उपलब्ध थीं। तभी युवा हनुमान प्रसाद पोद्दार ने...

गीता प्रेस गोरखपुर आज किसी परिचय की मोहताज नहीं है- धर्मशास्त्रों के मुद्रण (छपाई) और वितरण में अग्रणी इस प्रकाशक की माली हालत भले ऊपर-नीचे चलती रहती हो, जो किसी भी व्यवसायिक संस्थान के साथ होता ही रहता है, लेकिन हिन्दू समाज में इसके जितना सम्मान शायद ही किसी संस्थान का है किसी और का नहीं। और गीता प्रेस को इस मुकाम तक पहुँचाने में जिनका योगदान सबसे अधिक रहा, उनमें से एक हैं हनुमान प्रसाद पोद्दार- गीताप्रेस की मासिक पत्रिका 'कल्याण' के संस्थापक सम्पादक, और इसे अखिल-भारतीय विस्तार देने वाले स्वप्नदृष्टा, जिन्होंने यह मिथक तोड़ा कि धर्म के प्रचार-प्रसार के काम में आर्थिक हानि ही होती है, या इसमें पैसे का निवेश घाटे का सौदा ही होता है।

अंग्रेजों ने मोड़ा राष्ट्रवाद की ओर

17 सितंबर, 1892 को जन्मे हनुमान प्रसाद पोद्दार की राष्ट्रवादी और राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी जीवन के शुरुआती दौर में न के बराबर थी*। जैसा कि उनके मारवाड़ी समुदाय में उस समय का प्रचलन था, उन्होंने कम उम्र में ही शादी की, पत्नी को माँ-बाप की सेवा में बिठाया और काम-धंधा सीखने कलकत्ते निकल पड़े। *लेकिन उन दिनों का कलकत्ता राष्ट्रवादी क्रांतिकारी आन्दोलन का गढ़ था। युवा पोद्दार के हॉस्टल के भी कुछ युवक क्रांतिकारी निकले, और अंग्रेज़ पुलिस ने लगभग पूरे हॉस्टल के नौजवानों को बिना चार्ज जेल में ठूँस दिया- अंडरट्रायल के नाम पर सड़ने के लिए। इस अन्याय, और जेल में क्रांतिकारियों-राष्ट्रवादियों की संगति, ने पोद्दार को बदल दिया- वे जेल से छूटने के बाद शुरू में तो व्यापार के सिलसिले में बम्बई चले गए, लेकिन उनकी रुचि धीरे-धीरे अर्थ से अधिक धर्म और राष्ट्र की तरफ झुकने लगी थी।

बाइबिल के बराबर गीता का प्रसार करने के लिए शुरू की प्रेस

अलीपुर जेल में श्री ऑरोबिंदो (उस समय बाबू ऑरोबिंदो घोष) के साथ बंद रहे पोद्दार ने जेल में ही गीता का अध्ययन शुरू कर दिया था। वहाँ से छूटने के बाद उन्होंने ध्यान दिया कि कैसे कलकत्ता ईसाई मिशनरी गतिविधियों का केंद्र बना हुआ था, जहाँ बाइबिल के अलावा ईसाईयों की अन्य किताबें भी, जिनमें हिन्दुओं की धार्मिक परम्पराओं के लिए अनादर से लेकर झूठ तक भरा होता था, सहज उपलब्ध थीं। लेकिन गीता- जो हिन्दुओं का सर्वाधिक जाना-माना ग्रन्थ था, उसकी तक ढंग की प्रतियाँ उपलब्ध नहीं थीं। इसीलिए बंगाली तेज़ी से हिन्दू से ईसाई बनते जा रहे थे।

मारवाड़ी अधिवेशन में पड़ी कल्याण की नींव

1926 में हुए मारवाड़ी अग्रवाल महासभा के दिल्ली अधिवेशन में पोद्दार की मुलाकात सेठ घनश्यामदास बिड़ला से हुई, जिन्होंने आध्यात्म में पहले ही गहरी रुचि रखने वाले पोद्दार को सलाह दी कि जन-सामान्य तक आध्यात्मिक विचारों और धर्म के मर्म को पहुँचाने के लिए आम भाषा (आज हिंदी, उस समय की 'हिन्दुस्तानी') में एक सम्पूर्ण पत्रिका प्रकाशित होनी चाहिए।..... पोद्दार ने उनके इस विचार की चर्चा जयदयाल गोयनका से की, जो उस समय तक गोबिंद भवन कार्यालय के अंतर्गत गीता प्रेस नामक प्रकाशन का रजिस्ट्रेशन करा चुके थे। गोयनका ने पोद्दार को अपनी प्रेस से यह पत्रिका निकालने की ज़िम्मेदारी दे दी, और इस तरह 'कल्याण' पत्रिका का उद्भव हुआ, जो तेज़ी से हिन्दू घरों में प्रचारित-प्रसारित होने लगी। आज कल्याण के मासिक अंक लगभग हर प्रचलित भारतीय भाषा और इंग्लिश में आने के अलावा पत्रिका का एक वार्षिक अंक भी प्रकाशित होता है, जो अमूमन किसी-न-किसी एक पुराण या अन्य धर्मशास्त्र पर आधारित होता है।

गीता प्रेस की स्थापना का उद्देश्य

गीता प्रेस की स्थापना के पीछे का दर्शन स्पष्ट था- प्रकाशन और सामग्री/जानकारी की गुणवत्ता के साथ समझौता किए बिना न्यूनतम मूल्य और सरलतम भाषा में धर्मशास्त्रों को जन-जन की पहुँच तक ले जाना। हालाँकि गीता प्रेस की स्थापना गैर-लाभकारी संस्था के रूप में हुई, लेकिन गोयनका-पोद्दार ने इसके लिए चंदा लेने से भी इंकार कर दिया, और न्यूनतम लाभ के सिद्धांत पर ही इसे चलाने का निर्णय न केवल लिया, बल्कि उसे सही भी साबित करके दिखाया। 5 साल के भीतर गीताप्रेस देश भर में फ़ैल चुकी थी, और विभिन्न धर्मग्रंथों का अनुवाद और प्रकाशन कर रही थी। गरुड़पुराण, कूर्मपुराण, विष्णुपुराण जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन ही नहीं, पहला शुद्ध और सही अनुवाद भी गीता प्रेस ने ही किया।

बम्बई से आई गोरखपुर, गोरखधाम बना संरक्षक

गीता प्रेस ने श्रीमद्भागवत गीता और रामचरितमानस की करोड़ों प्रतियाँ प्रकाशित और वितरित की हैं। इसका पहला अंक वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हुआ, और एक साल बाद इसे गोरखपुर से ही प्रकाशित किया जाने लगा।

उसी समय गोरखधाम मन्दिर के प्रमुख और नाथ सम्प्रदाय के सिरमौर की पदवी को प्रेस का मानद संरक्षक भी नामित किया गया- यानी आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और नाथ सम्प्रदाय के मुखिया योगी आदित्यनाथ गीता प्रेस के संरक्षक हैं।

गीता प्रेस की सबसे खास बात है कि इतने वर्षों में कभी भी उस पर न ही सामग्री ('content') की गुणवत्ता के साथ समझौते का इलज़ाम लगा, न ही प्रकाशन के पहलुओं के साथ- वह भी तब जब 60 करोड़ से अधिक प्रतियाँ प्रेस से प्रकाशित हो चुकीं हैं। 96 वर्षों से अधिक समय से इसका प्रकाशन उच्च गुणवत्ता के कागज़ पर ही होता है, छपाई साफ़ और स्पष्ट, अनुवाद या मुद्रण (printing) में शायद ही कभी कोई त्रुटि रही हो, और subscription लिए हुए ग्राहकों को यह अमूमन समय पर पहुँच ही जाती है- और यह सब तब, जबकि पोद्दार ने इसे न्यूनतम ज़रूरी मुनाफे के सिद्धांत पर चलाया, और यही सिद्धांत आज तक वर्तमान में 200 कर्मचारियों के साथ काम कर रही गीता प्रेस गोरखपुर में पालित होता है। न ही गीता प्रेस पाठकों से बहुत अधिक मुनाफ़ा लेती है, न ही चंदा- और उसके बावजूद गुणवत्ता में कोई कमी नहीं।

'भाई जी' कहलाने वाले पोद्दार ने ऐसा सिस्टम बना और चला कर यह मिथक तोड़ दिया कि धर्म का काम करने में या तो धन की हानि होती है (क्योंकि मुनाफ़ा कमाया जा नहीं सकता), या फिर गुणवत्ता की (क्योंकि बिना 'पैसा पीटे' उच्च गुणवत्ता वाला काम होता नहीं है)। उन्होंने मुनाफ़ाखोरी और फकीरी के दोनों चरम छोरों पर जाने से गीता प्रेस को रोककर, ethical business और धर्म-आधारित entrepreneurship का उदाहरण प्रस्तुत किया।

ठुकराया राय बहादुर और भारत रत्न, आज भी जारी अखंड रामचरित मानस पाठ

हनुमान प्रसाद पोद्दार उन चुनिन्दा सार्वजनिक हस्तियों में रहे, जिन्होंने अंग्रेजों का राय बहादुर और आज़ादी के बाद भारत सरकार का भारत रत्न दोनों ही मना कर दिया।.... 22 मार्च, 1971 को उनकी मृत्यु हो जाने के बाद प्रेस के जिस कमरे में, जिस डेस्क पर बैठकर वह प्रेस के संचालन और 'कल्याण' के सम्पादन के साथ-साथ 'शिव' के छद्म नाम से पत्रिका में लेखन भी करते थे, वह डेस्क और कमरा आज भी अक्षुण्ण रखे गए हैं।

उनके कमरे में आज भी अखंड रामचरित मानस पाठ बदस्तूर चलता रहता है, जिसके लिए लोग पालियों में भागीदारी करते हैं। ऐसे अमर धर्मवीर हनुमान प्रसाद जी को कोटि कोटि नमन।

प्रभु चरणों मे विनती हैं कि यह गीता प्रेस और भी गति से अपना कार्य करें ।

अपनी कलम से.. google का सहयोग

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कंजूस

*☺☺ हंस लें थोड़ा सा ☺☺* एक दिन एक बहुत बड़े कजूंस  के घर में कोई मेहमान आया! कजूंस ने अपने बेटे से कहा "आधा किलो बेहतरीन मिठाई ले आओ।&q...